दीवार हिन्दू मुस्लिम की प्रेम कहानी की एक ऐसी गाथा है जो कैसे पूरी होगी मैं भी नहीं बता सकता हूं । क्योंकि यह उलझा हुआ प्लाट है यह कहानी उस समय की है जब गदर फ़िल्म भी नही बनी थी यही सन्न 1985 की बात होगी जब मेरें मन इस तरह का ख्याल आया पर कहानी पूरी कर सका क्योंकि इस कहानी में कई तरह के उलझनें थी जिसे मैं आगे नहीँ बड़ा सका अब आगे बढ़ा रहा हूँ, शायद आपनो आपको पसन्द आएगी तो बताइयेगा औऱ शेयर करते रहियेगा । कहानी पूरी काल्पनिक है किसी ब्यक्ति स्थान आदि से सम्बन्ध नहीं है ऐसा हुआ तो मात्र इसे संयोग समझा जायेगा ।
दीवार
गर्मियों का मौसम था, बस स्टाप पर काफी भीड़ थी लोग बस की प्रतीक्षा बेताबी से कर रहे थे। लोगों के शरीर पर पसीना छाया था, सलीम ने अपना स्कुटर स्टार्ट कर रहा था कि उसकी अपने दोस्त पर पड़ी, उसका मुँह दूसरी ओर था। उसने काली चुस्त पैंट ओर सफेद शर्ट पहनी हुईं थीं कन्धे पर गोल कटे हुए बाल अच्छे लग रहे थे काफी समय से उसकी मुलाकात भी नहीं हुई, स्कूटर को वहीँ छोड़ सलीम उसके पास आया औऱ उसके कंधे पर हाथ रखकर बोला,--”हेलो रमेश, क्या बात है, आजकल ईद के चांद हो गये हो बहुत समय से दिखाई नहीँ दिये औऱ तुम्हारे हाथ मे किताब ----। सलीम के शब्द अधूरे रह गये वह युवक मुड़ा और उसकी शक्ल देखकर सलीम घबरा गया। औऱ घबराकर बोला सारी मैडम मै आपको अपना दोस्त रमेश समझ बैठा। वह एक लड़की थी, पतली सी कमर गोरा रंग लम्बी सी नाक सन्तरे की फांक जैसे रस भरे ओंठ पतली आँखे कन्धे पर लंबे गोल कटे हुए बाल जिसे देखकर मैं उसे अपना दोस्त समझ बैठा था कपडे भी रमेश जैसे थे ऐसी सुंदर लग रही थी, जैसे जीनस की मुर्ती हो । आप को रमेश को कैसे जानते हो।